संकल्प डेली करेंट अफेयर्स - 23 नवंबर 2025 (मुख्य अपडेट, विश्लेषण और बहुविकल्पीय प्रश्न)

संकल्प डेली करंट अफेयर्स - 23 नवंबर 2025 (मुख्य अपडेट, विश्लेषण और बहुविकल्पीय प्रश्न)


विषय 1:भारत में लगभग 30% महिलाएँ जीवनकाल में अंतरंग साथी हिंसा का सामना करती हैं: WHO

समाचार संदर्भ

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा जारी एक हालिया वैश्विक रिपोर्ट में यह चौंकाने वाला आँकड़ा सामने आया है कि भारत में लगभग 30% महिलाएँ अपने जीवनकाल में किसी न किसी रूप में अंतरंग साथी हिंसा (Intimate Partner Violence – IPV) का अनुभव करती हैं। यह हिंसा केवल शारीरिक हमलों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानसिक उत्पीड़न, सामाजिक नियंत्रण, आर्थिक शोषण, डराने-धमकाने और यौन हिंसा जैसे कई आयाम शामिल हैं।
WHO का कहना है कि यह समस्या भारत में व्यापक स्तर पर फैली हुई है और इसका प्रभाव न केवल व्यक्तिगत महिलाओं पर बल्कि परिवार, बच्चों और समाज की संरचना पर भी गहरा पड़ता है। रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आया कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक हिंसा सहने को मजबूर होती हैं, जबकि अधिकांश पीड़ित महिलाएँ अपने अनुभवों को सामाजिक शर्म, परिवार के दबाव और आर्थिक निर्भरता के कारण रिपोर्ट नहीं करतीं।
यह स्थिति दर्शाती है कि भारत में घरेलू वातावरण में हिंसा का खतरा केवल बीमारी नहीं बल्कि एक गहरा सामाजिक संकट है, जो देश की आधी आबादी की सुरक्षा, सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।

व्याख्या

अंतरंग साथी हिंसा वह हिंसा है जो किसी महिला पर उसके जीवन में मौजूद किसी निकट संबंध वाले पुरुष साथी—जैसे पति, प्रेमी, सहचर या पूर्व साथी—द्वारा की जाती है। यह हिंसा अक्सर घर की चारदीवारी में होती है और इसलिए यह खुलकर सामने नहीं आ पाती। कई बार यह हिंसा अचानक नहीं होती, बल्कि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है—पहले अपमान, फिर रोक-टोक, फिर धमकाना, और अंततः शारीरिक या यौन हिंसा में बदल जाती है।
भारत में घरेलू हिंसा को अब भी “परिवार का मामला” कहकर छिपा दिया जाता है। समाज इस प्रकार की हिंसा को कई बार सामान्य व्यवहार मान लेता है और महिलाएँ इसके खिलाफ आवाज़ उठाने में असमर्थ महसूस करती हैं। परिणामस्वरूप, महिलाएँ वर्षों तक हिंसा झेलती रहती हैं और उनका आत्मविश्वास, मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक जीवन और आर्थिक क्षमता गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
यह समस्या सिर्फ महिला के व्यक्तिगत अधिकार या सुरक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी सामाजिक जड़ता, पितृसत्तात्मक मानसिकता और कमजोर कानूनी ढाँचे का संकेत भी देती है।

अवधारणा को समझना

अंतरंग साथी हिंसा को समझने के लिए इसके विभिन्न रूपों को जानना ज़रूरी है। यह हिंसा सिर्फ “मारपीट” नहीं है। इसके कई गंभीर रूप हैं:

1. शारीरिक हिंसा

इसमें थप्पड़, धक्का, मारना, जलाना, चोट पहुँचाना, बाल खींचना, या किसी भी तरह की शारीरिक क्षति पहुँचाना शामिल है। कई महिलाएँ इसे “सामान्य झगड़ा” मानकर सहन करती रहती हैं।

2. मानसिक और भावनात्मक हिंसा

गाली देना, अपमानित करना, डराना-धमकाना, परिवार या दोस्तों से दूर करना, लगातार ताने देना, और महिला के आत्मविश्वास को तोड़ना—ये सब इसी श्रेणी में आते हैं। यह हिंसा सबसे अधिक लंबी और विनाशकारी होती है।

3. यौन हिंसा

बिना सहमति संबंध बनाना, यौन गतिविधियों के लिए दबाव डालना, महिला की इच्छा की अनदेखी करना, या मानसिक दबाव बनाकर यौन संबंध के लिए मजबूर करना—ये सभी अत्यंत गंभीर अपराध हैं।

4. आर्थिक हिंसा

महिला की आय को जबरन लेना, उसे घर से बाहर काम करने से रोकना, पैसे न देना, हर खर्च के लिए पति पर निर्भर बनाना—यह हिंसा महिलाओं को आर्थिक रूप से कमजोर बनाती है।

5. नियंत्रण आधारित हिंसा

फोन चेक करना, लोकेशन पूछते रहना, दोस्तों से मिलने से रोकना, कपड़े पहनने पर रोक लगाना, सोशल मीडिया अकाउंट्स की जांच—ये सब आधुनिक रूप के नियंत्रण आधारित उत्पीड़न हैं।

प्रमुख तथ्य

  1. WHO रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 30% महिलाएँ अपने जीवनकाल में IPV का सामना करती हैं, जो वैश्विक औसत से अधिक है।
  2. NFHS-5 सर्वेक्षण में भी लगभग 32% विवाहित महिलाओं ने साथी हिंसा की पुष्टि की।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में साथी हिंसा का अनुपात शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक पाया गया।
  4. 15–49 वर्ष आयु समूह की महिलाओं में IPV की घटनाएँ सबसे अधिक दर्ज की गईं।
  5. WHO के अनुसार IPV महिलाओं में अवसाद, भय, तनाव, आत्महत्या की प्रवृत्ति और PTSD का सबसे बड़ा कारण है।
  6. भारत में शराब सेवन, नशा और गहरी पितृसत्तात्मक सोच IPV के प्रमुख कारण माने जाते हैं।
  7. लगभग 70–80% मामलों में महिलाएँ घटना की शिकायत दर्ज नहीं करतीं।
  8. सिर्फ 7% से भी कम महिलाएँ पुलिस से संपर्क करने का साहस जुटा पाती हैं।
  9. घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 होने के बावजूद कानूनों का प्रभावशील उपयोग अब भी सीमित है।
  10. हिंसा का मानसिक प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है, जिससे उनके व्यवहार और विकास में समस्याएँ आती हैं।
  11. WHO के अनुसार IPV को सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए।
  12. कई महिलाएँ आर्थिक निर्भरता के कारण हिंसक रिश्तों को छोड़ नहीं पातीं।

यह मुद्दा क्यों महत्वपूर्ण है

  1. यह महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान पर सीधा हमला है।
  2. IPV महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को दीर्घकालिक रूप से क्षतिग्रस्त करता है।
  3. यह भारत के लैंगिक समानता के प्रयासों को कमजोर करता है।
  4. IPV महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और आत्मनिर्भरता को बाधित करता है।
  5. यह परिवारिक तनाव, रिश्तों में टूटन और सामाजिक अस्थिरता का कारण बनता है।
  6. बच्चों के लिए असुरक्षित माहौल बनता है, जो उनके विकास पर असर डालता है।
  7. यह देश की आर्थिक प्रगति पर भी नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।

सामाजिक, आर्थिक और कानूनी प्रभाव

सामाजिक प्रभाव

  1. घरेलू माहौल तनावपूर्ण और असुरक्षित हो जाता है, जिससे परिवार का मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
  2. महिलाओं की सामाजिक भागीदारी कम हो जाती है और वे आत्म-विश्वास खोने लगती हैं।
  3. बच्चे हिंसा देखकर मानसिक आघात का शिकार होते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व पर असर पड़ता है।
  4. समाज में पितृसत्तात्मक रवैया और मजबूत होता जाता है, जिससे समानता के प्रयास कमजोर होते हैं।

आर्थिक प्रभाव

  1. हिंसा से पीड़ित महिलाओं की काम करने की क्षमता कम होती है, जिससे परिवार की आय घटती है।
  2. इलाज, काउंसलिंग और कानूनी सहायता पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ता है।
  3. महिलाओं की आर्थिक निर्भरता उन्हें हिंसा सहने पर मजबूर करती है।
  4. देश की कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी कम होने से आर्थिक विकास प्रभावित होता है।

कानूनी प्रभाव

  1. घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के बावजूद शिकायत दर्ज कराने की प्रक्रिया जटिल और लंबी है।
  2. पुलिस में संवेदनशीलता की कमी के कारण महिलाएँ शिकायत दर्ज कराने से कतराती हैं।
  3. फास्ट-ट्रैक अदालतें पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, जिससे न्याय में देरी होती है।
  4. कानूनी अधिकारों के प्रति महिलाओं में जागरूकता अब भी बहुत कम है।

समस्या को बढ़ाने वाली चुनौतियाँ

  1. सामाजिक बदनामी का भय महिलाओं को आवाज़ उठाने से रोकता है।
  2. आर्थिक निर्भरता के कारण महिलाएँ हिंसा वाले रिश्तों में फँसी रहती हैं।
  3. पुलिस और कानूनी प्रक्रियाएँ कई बार जटिल और भयावह लगती हैं।
  4. परंपरागत विचारधाराएँ IPV को “घरेलू झगड़ा” मानकर गंभीरता कम कर देती हैं।
  5. पर्याप्त शेल्टर होम, काउंसलिंग सेंटर और हेल्पलाइन की कमी।
  6. शराब और नशे की लत हिंसा के मामलों को और बढ़ाती है।
  7. महिलाओं की शिक्षा और जागरूकता का स्तर कम होने से रिपोर्टिंग और सहायता कम होती है।
  8. समाज में पितृसत्ता की जड़ें अब भी बहुत मजबूत हैं।

आगे का रास्ता

  1. महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना ताकि वे हिंसक रिश्तों पर निर्भर न रहें।
  2. कानूनी प्रक्रियाओं को सरल, तेज और महिलाओं के अनुकूल बनाना।
  3. स्कूल और कॉलेजों में लैंगिक समानता एवं संवेदनशीलता की शिक्षा शुरू करना।
  4. शेल्टर होम, हेल्पलाइन और काउंसलिंग सुविधाओं का विस्तार करना।
  5. समुदाय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना ताकि IPV को अपराध माना जाए, न कि निजी मामला।
  6. पुरुषों में व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रशिक्षण एवं काउंसलिंग कार्यक्रम बढ़ाना।
  7. पुलिस बल में महिला कर्मियों की संख्या बढ़ाना और उन्हें संवेदनशीलता प्रशिक्षण देना।

निष्कर्ष

भारत में अंतरंग साथी हिंसा एक गंभीर सामाजिक, मानसिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्या है। WHO और NFHS के आँकड़े बताते हैं कि यह समस्या व्यापक है और करोड़ों महिलाओं के जीवन को प्रभावित करती है।
जब तक समाज इस हिंसा को स्वीकार करना बंद नहीं करता, और कानूनी एवं सामाजिक तंत्र महिलाओं को सुरक्षित और सक्षम नहीं बनाते, तब तक यह संकट गहराता रहेगा।
भारत को ऐसे वातावरण की आवश्यकता है जहाँ हर महिला आत्मविश्वास, सुरक्षा और सम्मान के साथ अपना जीवन जी सके। IPV को रोकने के लिए सरकार, समाज, परिवार और व्यक्तिगत स्तर पर सामूहिक प्रयासों की जरूरत है।

विषय 2:पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी के प्रतीक को नए सिरे से समझना

समाचार संदर्भ 

हाल के वर्षों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर लोगों की जागरूकता तेजी से बढ़ी है। सरकारों, कंपनियों, स्कूलों, संस्थानों और नागरिक समूहों ने पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी को दिखाने के लिए विभिन्न प्रतीकों, चिह्नों, स्लोगन और अभियानों को अपनाया है। इनमें से कई प्रतीक इतने लोकप्रिय हो गए कि वे एक सार्वभौमिक पहचान का रूप ले चुके हैं।

लेकिन अब विशेषज्ञों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और नीति विशेषज्ञों के बीच यह चर्चा तेज हो गई है कि क्या ये प्रतीक वास्तव में पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी का सही प्रतिनिधित्व करते हैं या केवल एक औपचारिकता बनकर रह गए हैं। कई बार ये प्रतीक असल पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को छिपा देते हैं, जिससे ‘ग्रीन-वॉशिंग’ जैसी समस्या और बढ़ती है।

इस संदर्भ में अब ज़रूरत है कि हम इन प्रतीकों को केवल भावनात्मक पहचान के रूप में न देखें, बल्कि यह समझें कि इनके पीछे का वास्तविक कार्य कितना प्रभावी है। इसी चर्चा को विशेषज्ञ “Re-thinking Environmental Responsibility Symbols” कह रहे हैं।

व्याख्या 

पर्यावरण संरक्षण के प्रतीक—जैसे हरा पत्ता, रीसाइक्लिंग का त्रिकोण, पर्यावरण मित्र बैग, या ‘Go Green’ जैसे स्लोगन—अब लगभग हर जगह दिखते हैं। कंपनियाँ इन्हें अपनी पैकेजिंग, विज्ञापनों और वेबसाइटों पर उपयोग करती हैं। स्कूल और कॉलेज इन्हें जागरूकता अभियान का हिस्सा बनाते हैं।

लेकिन वास्तविकता यह है कि कई बार इन प्रतीकों का उद्देश्य बदल गया है। जहाँ पहले इनका मकसद व्यवहारिक परिवर्तन लाना था, वहीं अब अक्सर ये केवल दिखावे की वस्तु बन जाते हैं। प्रतीक बदल जाते हैं, परन्तु नीतियाँ, उत्पादन प्रक्रिया, कचरा प्रबंधन और ऊर्जा उपयोग जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र वास्तविक सुधार के बिना ही चल रहे होते हैं।

इसलिए विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रतीक ज़रूरी हैं, परंतु प्रतीकों से कहीं अधिक ज़रूरी है वास्तविक कार्य। इसीलिए पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी के प्रतीकों को नए नज़रिये से समझने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

अवधारणा को समझना 

इस विषय को समझने के लिए कुछ मूल बिंदुओं को समझना महत्वपूर्ण है:

  1. प्रतीक केवल संकेत होते हैं, समाधान नहीं।
    एक लोगो, स्लोगन या चिह्न पर्यावरण संरक्षण का प्रतिनिधित्व कर सकता है, पर वह स्वयं किसी समस्या को हल नहीं करता।

  2. ग्रीन-वॉशिंग की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है।
    कई कंपनियाँ प्रतीकों का उपयोग करके खुद को पर्यावरण-मित्र दिखाती हैं जबकि उनकी असली प्रक्रिया प्रदूषणकारी होती है।

  3. नीतियों और व्यवहार में बदलाव आवश्यक है।
    प्रतीकों से अधिक महत्वपूर्ण कार्य हैं—जैसे संसाधनों का कुशल उपयोग, कचरे का प्रभावी प्रबंधन और कार्बन उत्सर्जन में कमी।

  4. प्रतीक तभी उपयोगी हैं जब इन्हें क्रियान्वयन से जोड़ा जाए।
    यदि कोई संस्थान प्रतीक का उपयोग करे, तो उसे संबंधित वास्तविक कदम भी उठाने चाहिए।

  5. पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी केवल दिखावे नहीं बल्कि दीर्घकालीन प्रयासों से आती है।
    वातावरण में सुधार निरंतर और सामूहिक प्रयासों से ही संभव है।

प्रमुख तथ्य 

  1. दुनिया में 70% से अधिक कंपनियाँ अपनी ब्रांडिंग में “ग्रीन” प्रतीकों का उपयोग करती हैं, जबकि केवल लगभग 20% ही वास्तविक रूप से पर्यावरणीय मानकों का पालन करती हैं।
  2. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 40% हिस्सा उन उद्योगों से आता है जो ‘पर्यावरण-मित्र’ चिह्न का दावा करते हैं।
  3. भारत में हर साल लगभग 3.5 मिलियन टन ऐसा प्लास्टिक उत्पन्न होता है, जो ‘रीसाइक्लेबल’ लिखा होने के बावजूद कभी रीसाइक्लिंग प्लांट तक नहीं पहुँचता।
  4. सर्वे बताते हैं कि 60% उपभोक्ता केवल प्रतीकों को देखकर उत्पाद को पर्यावरण-अनुकूल मान लेते हैं।
  5. कई देशों में ‘ग्रीन लेबल’ की सत्यता को लेकर कड़े नियम लागू किए जा रहे हैं।
  6. भारत में भी BIS और CPCB द्वारा पर्यावरण चिन्हों के लिए सख्त दिशानिर्देश तैयार किए गए हैं।
  7. पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रतीकों से अधिक प्रभाव नियमों और पारदर्शिता से आता है।
  8. 2030 तक विश्व में ग्रीनवॉशिंग के कारण उपभोक्ताओं को होने वाला आर्थिक नुकसान 50 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है।
  9. प्रतीकों का अत्यधिक उपयोग जागरूकता तो बढ़ाता है परंतु व्यवहारिक परिवर्तन पर सीमित प्रभाव डालता है।
  10. आधुनिक शोध बताते हैं कि वास्तविक पर्यावरण प्रगति के लिए डेटा-आधारित आकलन, तकनीक और पारदर्शिता आवश्यक है।

यह मुद्दा क्यों महत्वपूर्ण है 

  1. प्रतीक और वास्तविक कार्य में अंतर बढ़ने से उपभोक्ताओं को भ्रमित किया जा रहा है।
  2. गलत दावों के कारण वास्तविक पर्यावरणीय प्रयास पीछे रह जाते हैं।
  3. ग्रीन-वॉशिंग से समाज में गलत संदेश जाता है।
  4. नीतियों और कानूनों को मजबूत करना आवश्यक हो जाता है।
  5. पर्यावरण संरक्षण की गंभीरता प्रतीकों के दिखावे में खो जाती है।
  6. सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखने के लिए पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है।
  7. वैश्विक जलवायु संकट के समय में केवल प्रतीकों पर निर्भरता बेहद खतरनाक हो सकती है।

सामाजिक, आर्थिक, कानूनी प्रभाव 

(A) सामाजिक प्रभाव 

  1. लोग प्रतीकों के आधार पर गलतफहमी में पर्यावरण-हितैषी उत्पाद चुनने लगते हैं।
  2. समाज में वास्तविक पर्यावरण समझ कमजोर पड़ती है।
  3. पर्यावरण शिक्षा प्रतीकों तक सीमित रह जाती है।
  4. नागरिक स्तर पर व्यवहारिक परिवर्तन की गति धीमी हो जाती है।

(B)आर्थिक प्रभाव

  1. कंपनियाँ बिना वास्तविक सुधार किए “ग्रीन लेबल” लगाकर अधिक मूल्य वसूलती हैं।
  2. उपभोक्ताओं पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ता है।
  3. वास्तविक पर्यावरण-अनुकूल उद्योग प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते हैं।
  4. ग्रीन-वॉशिंग से आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग बढ़ता है।

(C) कानूनी प्रभाव 

  1. कई देशों में गलत पर्यावरण दावों पर भारी जुर्माने लगाए जाते हैं।
  2. भारत में भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत कार्रवाई संभव है।
  3. कंपनियों के लिए रिपोर्टिंग और डेटा-आधारित प्रमाण अनिवार्य किए जा रहे हैं।
  4. पर्यावरण-संबंधी प्रमाणपत्र और मानक अधिक कठोर किए जा रहे हैं।

समस्या को बढ़ाने वाली चुनौतियाँ

  1. कंपनियों द्वारा प्रतीकों का अत्यधिक व्यावसायिक उपयोग।
  2. उपभोक्ताओं में पर्यावरण प्रमाणपत्रों की समझ की कमी।
  3. नियमों का कमजोर क्रियान्वयन।
  4. ग्रीन-वॉशिंग की पहचान करना कठिन।
  5. डेटा और पारदर्शिता की कमी।
  6. वास्तविक पर्यावरणीय लागत को छिपाया जाना।
  7. सोशल मीडिया पर गलत जानकारी का तेजी से फैलना।
  8. मानक और लेबलिंग सिस्टम कई जगह अस्पष्ट।

आगे का रास्ता

  1. पर्यावरणीय प्रतीकों के लिए सख्त और एकरूप मानक बनाए जाएँ।
  2. कंपनियों को अपने पर्यावरणीय दावों के लिए डेटा आधारित प्रमाण प्रस्तुत करने हों।
  3. उपभोक्ताओं को लेबल और प्रमाणपत्रों की सही पहचान के लिए शिक्षित किया जाए।
  4. ग्रीन-वॉशिंग पर कठोर दंड और निगरानी की व्यवस्था हो।
  5. वास्तविक पर्यावरण सुधार को प्राथमिकता दी जाए—जैसे कार्बन फुटप्रिंट कम करना।
  6. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में पर्यावरण रिपोर्टिंग को पारदर्शी बनाया जाए।
  7. प्रतीकों को व्यवहारिक प्रयासों से जोड़ना अनिवार्य हो।

निष्कर्ष 

पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी आज की दुनिया की सबसे बड़ी आवश्यकता है, लेकिन इसे केवल प्रतीकों के सहारे नहीं समझा जा सकता। प्रतीक जागरूकता बढ़ाने का माध्यम हैं, समाधान नहीं। यदि कंपनियाँ, संस्थान या नागरिक केवल प्रतीकों का उपयोग करें लेकिन वास्तविक सुधार न करें, तो इससे पर्यावरण की स्थिति में कोई ठोस परिवर्तन नहीं आता।

इसलिए ज़रूरी है कि हम प्रतीकों से आगे सोचें और उन वास्तविक कदमों पर ध्यान दें जो पर्यावरण को सच में सुरक्षित कर सकते हैं। पारदर्शिता, जिम्मेदारी, वैज्ञानिक आकलन और व्यवहारिक सुधार ही वह मार्ग हैं जिनसे हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर पर्यावरण सुनिश्चित कर सकते हैं। प्रतीक तभी सार्थक हैं जब वे वास्तविक परिवर्तन का प्रतिबिंब बनें, न कि केवल एक दिखावटी पहचान।

विषय 3: प्रदूषित भूजल की छिपी हुई लागत

समाचार संदर्भ

हाल के वर्षों में भारत के कई राज्यों में भूजल प्रदूषण एक गंभीर पर्यावरणीय संकट के रूप में उभर कर सामने आया है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और बिहार में की गई विभिन्न सरकारी व स्वतंत्र संस्थाओं की रिपोर्टों में पाया गया है कि भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाइट्रेट, कीटनाशक अवशेष और औद्योगिक रसायनों की मात्रा लगातार बढ़ रही है। कई स्थानों पर प्रदूषकों का स्तर भारतीय मानक संस्थान (BIS) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक पाया गया है।
भूजल प्रदूषण केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है बल्कि यह एक अदृश्य सामाजिक, स्वास्थ्य और आर्थिक बोझ बन गया है, जिसका सबसे अधिक असर ग्रामीण समुदायों, किसानों, कम आय वर्ग के परिवारों और पूरे जल–आधारित पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।
यह समस्या इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि अधिकांश लोग भूजल को सुरक्षित मानकर पीते हैं और प्रदूषण का पता वर्षों बाद चलता है, जब तक कि गंभीर स्वास्थ्य क्षति हो चुकी होती है। इसी कारण इसे “छिपी हुई लागत” कहा जाता है — लागत जो तुरंत दिखाई नहीं देती लेकिन धीरे-धीरे समाज को आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य स्तर पर तोड़ती रहती है।

व्याख्या

भूजल प्रदूषण का अर्थ है — ज़मीन के नीचे मौजूद जलभृत (aquifers) में हानिकारक रसायनों, धातुओं, जैविक अपशिष्टों और प्रदूषकों का घुल जाना। यह प्रदूषण धीरे-धीरे होता है और लंबे समय तक टिकता है क्योंकि भूजल का प्राकृतिक पुनरुद्धार बेहद धीमा होता है।
भारत में खेती, उद्योग, शहरीकरण, रासायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग, सीवेज प्रबंधन की कमी और अनियंत्रित भूजल दोहन प्रदूषण के मुख्य कारण हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि भूजल प्रदूषण तुरंत दिखाई नहीं देता। प्रदूषक ज़मीन में घुसते हैं, धीरे-धीरे फैलते हैं और वर्षों बाद जब कुएँ, हैंडपंप, बोरवेल दूषित होने लगते हैं तब लोगों को इसकी जानकारी होती है। उस समय तक स्थानीय आबादी कई स्वास्थ्य जोखिमों से जूझने लगती है।

अवधारणा को समझना

  1. भूजल प्रदूषण का स्रोत अदृश्य होता है — नदियों और झीलों जैसी सतही जल की तुलना में भूजल प्रदूषण का पता लगाना कठिन है क्योंकि यह मिट्टी और चट्टानों के भीतर छिपा होता है।

  2. प्रदूषक लंबे समय तक टिके रहते हैं — एक बार आर्सेनिक, फ्लोराइड या औद्योगिक रसायन भूजल में पहुँच जाएँ तो उन्हें निकालना या शुद्ध करना लगभग असंभव हो जाता है। यह दशकों तक प्रभावित करता है।

  3. जलभृत की गति धीमी होती है — भूजल बहुत धीरे-धीरे बहता है, इसलिए एक बार प्रदूषण होने पर उसका प्रभाव कई किलोमीटर तक फैल सकता है और रोकना मुश्किल हो जाता है।

  4. स्वास्थ्य प्रभाव तुरंत दिखाई नहीं देते — आर्सेनिक और नाइट्रेट जैसे प्रदूषकों के प्रभाव वर्षों बाद दिखाई देते हैं, जिससे बीमारी के कारण और प्रदूषण के बीच संबंध स्थापित करना कठिन हो जाता है।

  5. सबसे अधिक नुकसान गरीब परिवारों को होता है — क्योंकि उनके पास RO, प्यूरीफायर, बोतलबंद पानी या स्वस्थ विकल्प नहीं होते। वे वही पानी पीते हैं जो उपलब्ध है और धीरे-धीरे बीमारियाँ बढ़ती चली जाती हैं।

प्रमुख तथ्य

  1. भारत में 70% ग्रामीण आबादी अपनी पेयजल आवश्यकता के लिए भूजल पर निर्भर है, इसलिए प्रदूषण का असर सबसे ज्यादा ग्रामीण इलाकों में पड़ता है।

  2. केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) के अनुसार देश के 1500 से अधिक ब्लॉक “गंभीर प्रदूषण–प्रभावित” श्रेणी में हैं।

  3. आर्सेनिक प्रदूषण मुख्य रूप से गंगा–ब्रह्मपुत्र मैदानी क्षेत्रों में पाया गया है और करोड़ों लोग इसके संपर्क में हैं।

  4. राजस्थान, कर्नाटक और तेलंगाना में फ्लोराइड युक्त भूजल ने लाखों लोगों में डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस पैदा किया है।

  5. पंजाब और हरियाणा में नाइट्रेट प्रदूषण का स्तर WHO की सीमा से कई गुना अधिक पाया गया है, जिसका मुख्य कारण रासायनिक खाद है।

  6. उद्योगों से निकलने वाला क्रोमियम, लेड, कैडमियम जैसे भारी धातु देश के कई औद्योगिक ज़ोन के नीचे भूजल को स्थायी रूप से प्रदूषित कर चुका है।

  7. हजारों गाँव ऐसे हैं जहाँ हैंडपंपों को लाल या पीला रंग कोड किया गया है, जो गंभीर प्रदूषण का संकेत देते हैं।

  8. WHO मानता है कि भूजल प्रदूषण भारत में कैंसर, थायराइड, किडनी फेल्योर और बच्चों में विकास संबंधी समस्याओं का एक बड़ा कारक है।

  9. जलजीव पारिस्थितिकी (aquatic ecology) भी प्रभावित होती है क्योंकि प्रदूषित भूजल नदियों और तालाबों में जाकर जलीय जीवन को भी क्षति पहुँचाता है।

  10. भारत में प्रदूषित भूजल के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आर्थिक हानि हर साल हजारों करोड़ रुपये मानी जाती है, जिसका कोई सटीक रिकॉर्ड नहीं है।

यह मुद्दा क्यों महत्वपूर्ण है

  1. भारत की 60% से अधिक पेयजल आपूर्ति भूजल आधारित है, इसलिए यह सीधे स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा है।

  2. भूजल प्रदूषण का पता देर से चलता है और तब तक नुकसान अपरिवर्तनीय हो जाता है।

  3. यह राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य व्यय बढ़ाता है और गरीब परिवारों पर भारी आर्थिक बोझ डालता है।

  4. कृषि में प्रदूषित पानी का उपयोग खाद्यान्न में रसायनों और धातुओं की मात्रा बढ़ाता है, जिससे खाद्य सुरक्षा भी जोखिम में पड़ती है।

  5. उद्योग, खेती और शहरों में भूजल दोहन बढ़ने से प्रदूषण तेजी से फैल रहा है।

  6. बच्चे, गर्भवती महिलाएँ और बुजुर्ग सबसे अधिक संवेदनशील समूह हैं।

  7. प्रदूषित भूजल पर्यावरण, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था — तीनों को एक साथ प्रभावित करता है, इसलिए स्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सामाजिक, आर्थिक और कानूनी प्रभाव

सामाजिक प्रभाव

  1. प्रदूषित पानी का उपयोग करने वाले समुदायों में बीमारियाँ बढ़ने से परिवारों में मानसिक तनाव और असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है।

  2. बीमारी के कारण स्कूल जाने वाले बच्चों की उपस्थिति घटती है और उनका भविष्य प्रभावित होता है।

  3. समाज में “साफ पानी” के लिए संघर्ष बढ़ता है और ग्रामीण इलाकों में पानी को लेकर विवाद भी बढ़ सकते हैं।

आर्थिक प्रभाव

  1. परिवारों का चिकित्सा खर्च बढ़ जाता है, खासकर आर्सेनिक और फ्लोराइड से जुड़ी बीमारियों में लंबा उपचार चाहिए।

  2. बीमारियों के कारण श्रमशक्ति कम होती है, जिससे ग्रामीण और औद्योगिक उत्पादन घटता है।

  3. सरकार को शुद्ध पेयजल आपूर्ति और उपचार योजनाओं पर भारी खर्च करना पड़ता है।

  4. प्रदूषित क्षेत्रों की भूमि कीमत घट जाती है क्योंकि खेती और आवास दोनों प्रभावित होते हैं।

कानूनी प्रभाव
  1. भूजल प्रबंधन के लिए स्पष्ट राष्ट्रीय कानून की कमी समस्या को बढ़ाती है।

  2. उद्योगों द्वारा अवैध रासायनिक कचरा निस्तारण पर कड़े दंडात्मक प्रावधान होने के बावजूद उनका पालन कमजोर है।

  3. कई राज्य जल गुणवत्ता परीक्षण के परिणाम सार्वजनिक नहीं करते, जिससे पारदर्शिता कम रहती है।

  4. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) के तहत कार्रवाई की प्रक्रिया लंबी होने से पीड़ितों को समय पर न्याय नहीं मिलता।

समस्या को बढ़ाने वाली चुनौतियाँ

  1. भूजल की गुणवत्ता की नियमित जाँच नहीं होती, जिससे प्रदूषण वर्षों तक अनदेखा रहता है।

  2. ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल के विकल्प सीमित हैं, इसलिए लोग मजबूरी में दूषित पानी पीते हैं।

  3. कृषि में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग नाइट्रेट और रसायनों को सीधे भूजल में पहुँचाता है।

  4. छोटे और मध्यम उद्योग अक्सर अपशिष्ट को बिना उपचार के ज़मीन में छोड़ देते हैं।

  5. शहरी क्षेत्रों में सीवेज प्रणाली कमजोर है, जिससे कचरा भूजल में रिसता है।

  6. जागरूकता की कमी — अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि उनका पानी प्रदूषित है या नहीं।

  7. भूजल के अत्यधिक दोहन से प्रदूषक गहरे स्तरों तक पहुँच जाते हैं।

  8. निगरानी तंत्र कमजोर है और अलग–अलग एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी है।

आगे का रास्ता

  1. प्रत्येक जिले में भूजल गुणवत्ता की नियमित मॉनिटरिंग और सार्वजनिक रिपोर्टिंग की व्यवस्था करनी चाहिए।

  2. उद्योगों के अपशिष्ट प्रबंधन पर कड़ी निगरानी और उल्लंघन पर त्वरित दंड लागू होना चाहिए।

  3. ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक RO, नल जल और पाइप जल परियोजनाओं को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।

  4. किसानों को जैविक खेती, कम रासायनिक खाद और माइक्रो–इरिगेशन तकनीकें अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाए।

  5. भूजल पुनर्भरण (recharge) संरचनाओं का निर्माण बढ़ाया जाए ताकि प्रदूषण की तीव्रता कम हो।

  6. जल संरक्षण और स्वच्छता पर राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जाए।

  7. भूजल कानून को मजबूत बनाकर सभी राज्यों में एक समान नियम लागू किए जाएँ।

निष्कर्ष

प्रदूषित भूजल भारत के सामने एक ऐसा संकट है जो दिखाई नहीं देता लेकिन समय के साथ पूरे समाज को आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य के स्तर पर गंभीर नुकसान पहुँचाता है। यह समस्या केवल पानी की गुणवत्ता का मुद्दा नहीं बल्कि मानव–स्वास्थ्य, कृषि–उत्पादकता, खाद्य–सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता से जुड़ा हुआ है।
जब तक भूजल की व्यवस्थित मॉनिटरिंग, प्रदूषण रोकथाम, स्वच्छ पेयजल आपूर्ति और कठोर कानूनी नियंत्रण लागू नहीं किया जाएगा, तब तक यह अदृश्य संकट और गहराता जाएगा।
इसलिए आवश्यक है कि सरकार, समुदाय, उद्योग और किसान—सभी मिलकर इस छिपी हुई समस्या का समाधान खोजें और आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित व स्वच्छ जल प्रदान करें।

विषय 4: क्या एक-दलीय प्रभुत्व (Single-Party Hegemony) के दौर में संघवाद पीछे हट रहा है?

समाचार संदर्भ

हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति में एक ऐसा दौर उभर कर सामने आया है जिसमें केंद्र में एक ही राजनीतिक दल का प्रभाव अत्यधिक बढ़ा है और कई राज्यों में भी वही दल सत्ता में है। लोकसभा में पूर्ण बहुमत, राज्यसभा में बढ़ती संख्या, राज्यों में लगातार चुनावी जीत और राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक पकड़ ने भारत में “एक-दलीय प्रभुत्व” की अवधारणा को फिर से चर्चा में ला दिया है।
इसी पृष्ठभूमि में विशेषज्ञों, संवैधानिक विद्वानों और पूर्व नौकरशाहों द्वारा यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि क्या इससे भारत का संघीय ढांचा कमजोर हो रहा है?
कई राज्य ऐसे मुद्दों पर केंद्र का बढ़ता हस्तक्षेप महसूस कर रहे हैं — जैसे कर व्यवस्था, कानून–व्यवस्था, केंद्रीय जांच एजेंसियाँ, राज्यपाल की भूमिका, वित्तीय संसाधन आवंटन और सहकारी संघवाद की पारदर्शिता।
यह बहस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत का संविधान संघीय ढाँचे को मूल संरचना का हिस्सा मानता है, और केंद्र–राज्य संतुलन लोकतांत्रिक स्थिरता की नींव है।

व्याख्या

"एक-दलीय प्रभुत्व" का अर्थ केवल एक दल का चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि राजनीतिक, प्रशासनिक और नीतिगत स्तर पर ऐसा प्रभाव स्थापित कर लेना है जहाँ विपक्ष की भूमिका सीमित हो जाए और निर्णय लेने की शक्ति केंद्र के पास अत्यधिक केंद्रित हो जाए।
संघवाद का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केंद्र और राज्य दोनों के पास अपनी-अपनी शक्तियाँ हों, जिससे शासन संतुलित, जवाबदेह और विविध क्षेत्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप रहे।
लेकिन जब एक ही दल केंद्र और कई राज्यों में प्रभुत्व स्थापित कर लेता है, तब केंद्र-राज्य संबंधों में शक्ति असंतुलन बढ़ने का जोखिम पैदा होता है। यह स्थिति संविधान की भावना, राजनीतिक विविधता और प्रशासनिक स्वायत्तता को चुनौती दे सकती है।

अवधारणा को समझना

  1. संघवाद का मूल सिद्धांत संतुलन है — केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति बँटी होनी चाहिए, ताकि किसी एक स्तर पर अत्यधिक केंद्रीकरण न हो।

  2. एक-दलीय प्रभुत्व में राजनीतिक विविधता कमजोर होती है — राज्य अपनी स्वतंत्र नीतियाँ बनाने के बजाय केंद्र की दिशा पर निर्भर हो जाते हैं।

  3. प्रशासनिक निर्णय केंद्रीकृत होने लगते हैं — आर्थिक सहायता, नीतियों की मंजूरी और कानून-व्यवस्था जैसे मामलों में केंद्र का प्रभाव बढ़ जाता है।

  4. लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका घटती है — एक मजबूत दल देश में नीति निर्माण पर एकाधिकारी नियंत्रण बना सकता है।

  5. संविधान की “सहकारी संघवाद” अवधारणा चुनौती में पड़ जाती है — सहयोग के स्थान पर निर्देशात्मक या नियंत्रित संघवाद उभर सकता है।

प्रमुख तथ्य

  1. भारत का संविधान केंद्र–राज्य शक्तियों को 7वीं अनुसूची में तीन सूचियों के अंतर्गत विभाजित करता है — केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।

  2. पिछले एक दशक में केंद्र का नीति निर्धारण पर नियंत्रण बढ़ा है, विशेषकर GST लागू होने के बाद राज्यों की कर-संबंधी स्वायत्तता कम हुई है।

  3. कई राज्यों ने आरोप लगाया कि केंद्रीय एजेंसियाँ — ED, CBI, IT — का उपयोग राज्य सरकारों पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है।

  4. राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच विभिन्न राज्यों में बार-बार टकराव देखा गया है, जिससे संवैधानिक प्रक्रिया प्रभावित होती है।

  5. केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यों की भूमिका कम हो रही है और निर्णय केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा संचालित हो रहे हैं।

  6. वित्त आयोग के हालिया चक्रों में संसाधन आवंटन पर दक्षिणी राज्यों ने असहमति जताई है।

  7. विपक्ष–शासित राज्यों ने अक्सर दावा किया कि नीति निर्माण में परामर्श और भागीदारी सीमित होती जा रही है।

  8. सहकारी संघवाद के मंचों जैसे GST काउंसिल में भी कई बार मतभेद स्पष्ट रूप से सामने आए हैं।

  9. कई संवैधानिक विशेषज्ञों का मत है कि राज्य सूची के विषय धीरे-धीरे समवर्ती या केंद्रीय प्रभाव के दायरे में खिसक रहे हैं।

  10. सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में कहा है कि सहकारी संघवाद भारत की मूल संरचना का हिस्सा है, जिसे कमजोर नहीं किया जा सकता।

यह मुद्दा क्यों महत्वपूर्ण है

  1. यह भारत की राजनीतिक विविधता और लोकतांत्रिक बहुलता पर दीर्घकालिक प्रभाव डालता है।

  2. यदि राज्यों की स्वायत्तता कम होती है तो स्थानीय ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक निर्णय लेने की क्षमता घट जाती है।

  3. अत्यधिक केंद्रीकरण से राज्य सरकारें वित्तीय और नीतिगत स्तर पर कमजोर हो सकती हैं।

  4. संघीय ढाँचे में असंतुलन से क्षेत्रीय असंतोष, राजनीतिक तनाव और शासनकीय टकराव बढ़ सकते हैं।

  5. सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को जोखिम में डाल सकता है।

  6. सहकारी संघवाद के कमजोर होने से राष्ट्रीय नीतियों की पारदर्शिता और जवाबदेही कम होती है।

  7. यह आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और राज्यों की दीर्घकालीन स्थिरता पर असर डालता है।

सामाजिक, आर्थिक और कानूनी प्रभाव

सामाजिक प्रभाव

  1. राज्यों के भीतर शासन कमजोर होने से सार्वजनिक सेवाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याण योजनाओं पर प्रभाव पड़ता है।

  2. क्षेत्रीय पहचान और स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर होता है, जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ सकता है।

  3. लोकतांत्रिक भागीदारी कम होती है क्योंकि लोगों को लगता है कि निर्णय केंद्र द्वारा थोपे जा रहे हैं।

आर्थिक प्रभाव

  1. राज्यों की कर-संबंधी शक्तियाँ घटने से उनकी वित्तीय स्वतंत्रता कम हो जाती है।

  2. केंद्र से मिलने वाली सहायता पर अत्यधिक निर्भरता राज्य सरकारों की विकासात्मक योजनाओं को धीमा करती है।

  3. निवेश और औद्योगिक नीतियों में भी राज्यों की स्वतंत्र भूमिका कम हो सकती है।

  4. केंद्र के निर्णयों के कारण कुछ राज्यों को अधिक और कुछ को कम लाभ मिलने से आर्थिक असंतुलन बढ़ सकता है।

कानूनी प्रभाव
  1. केंद्र–राज्य विवादों में वृद्धि से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट पर दबाव बढ़ता है।

  2. राज्यपालों की संवैधानिक भूमिका विवाद का बड़ा स्रोत बनती जा रही है।

  3. संघवाद की मूल संरचना की सुरक्षा के लिए न्यायालयों को अधिक सक्रिय होना पड़ रहा है।

  4. कई बार कानून व्यवस्था, पुलिस और प्रशासनिक विषयों में केंद्र का हस्तक्षेप संवैधानिक स्पष्टता को चुनौती देता है।

समस्या को बढ़ाने वाली चुनौतियाँ

  1. राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता केंद्र पर निर्भरता बढ़ाती है।

  2. राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक मुद्दों का हवाला देकर केंद्र कई बार अधिक अधिकार अपने हाथ में ले लेता है।

  3. विपक्ष कमजोर होने से संस्थागत संतुलन टूटने लगता है।

  4. राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव संवैधानिक अवरोध पैदा करता है।

  5. राज्यों में वित्तीय संसाधन कम होने से वे नीति निर्माण में सक्रिय भूमिका नहीं निभा पाते।

  6. केंद्र प्रायोजित योजनाएँ अक्सर राज्यों के संसाधनों और प्राथमिकताओं को पीछे धकेल देती हैं।

  7. केंद्र और राज्यों के बीच संवाद का अभाव गलतफहमियाँ बढ़ाता है।

  8. न्यायिक प्रक्रिया लंबी होने से संवैधानिक विवाद समय पर हल नहीं हो पाते।

आगे का रास्ता

  1. केंद्र–राज्य परिषद की नियमित बैठकें हों और राज्यों की राय को निर्णय में अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए।

  2. राज्यपालों की भूमिका पर स्पष्ट दिशानिर्देश और सीमाएँ तय की जाएँ ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप कम हो।

  3. GST काउंसिल में राज्यों की वित्तीय चिंताओं पर संतुलित और निष्पक्ष समाधान लागू किए जाएँ।

  4. संघीय ढाँचे से जुड़े मामलों में संसद में व्यापक चर्चा और सुधार की प्रक्रिया शुरू की जाए।

  5. केंद्र और राज्यों के बीच साझा परियोजनाओं में पारदर्शिता बढ़ाई जाए और राज्यों को अधिक प्रशासनिक अधिकार मिलें।

  6. राज्यों को अपने कर बढ़ाने, स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने और स्वतंत्र आर्थिक नीति बनाने की अधिक स्वतंत्रता दी जाए।

  7. संवैधानिक संस्थाओं को राजनीतिक दबाव से मुक्त कर उनकी भूमिका को मजबूत किया जाए।

निष्कर्ष

भारत का संघवाद केवल संवैधानिक व्यवस्था नहीं, बल्कि विविधता से भरे इस देश की स्थिरता का आधार है। जब केंद्र में एक ही दल का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब स्वाभाविक रूप से राज्यों की स्वायत्तता, नीतिगत स्वतंत्रता और राजनीतिक आवाज़ प्रभावित होती है।
यह जरूरी है कि केंद्र और राज्य सहयोगी साझेदार की तरह कार्य करें, न कि प्रतिस्पर्धी या नियंत्रित भूमिका में। संघवाद का उद्देश्य संतुलन, परामर्श और सहभागिता पर आधारित है। इसे केवल कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक और नैतिक भावना से भी बचाया जाना चाहिए।
भारत की लोकतांत्रिक मजबूती इसी में है कि हर प्रदेश, हर क्षेत्र और हर नागरिक की आवाज़ नीति निर्माण में सम्मानपूर्वक शामिल हो। इसलिए संघवाद को मज़बूत करना केवल राजनीतिक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक संवैधानिक और राष्ट्रीय दायित्व है।

विषय 5: रैंडम फॉरेस्ट क्या है?

1. समाचार संदर्भ

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग का उपयोग दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहा है। स्वास्थ्य सेवा से लेकर बैंकिंग, कृषि, मौसम पूर्वानुमान और साइबर सुरक्षा तक—हर क्षेत्र में डेटा आधारित निर्णय-प्रणालियाँ महत्वपूर्ण होती जा रही हैं। इसी संदर्भ में "रैंडम फॉरेस्ट" नाम की तकनीक को एक अत्यंत प्रभावी, भरोसेमंद और उच्च-शुद्धता वाले मशीन लर्निंग मॉडल के रूप में व्यापक पहचान मिली है। हाल के वर्षों में कई सरकारी संस्थानों, अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों और निजी क्षेत्रों ने इसे डेटा एनालिसिस, जोखिम मूल्यांकन, धोखाधड़ी पहचान और पूर्वानुमान से जुड़े कार्यों में अपनाया है।

रिपोर्टों के अनुसार, बड़े डेटा सेट, मल्टी-वेरिएबल विश्लेषण और जटिल निर्णय-प्रणालियों में रैंडम फॉरेस्ट एल्गोरिद्म अन्य तरीकों की तुलना में अधिक स्थिर, कम त्रुटिपूर्ण और कम बायस वाला साबित हुआ है। दुनिया भर में डेटा वैज्ञानिक इसे “सुपरवाइज्ड लर्निंग के सबसे विश्वसनीय तरीकों में से एक” मानते हैं। इसी कारण, आज इसके सिद्धांत, उपयोग और प्रभाव को समझना बेहद महत्वपूर्ण है।

व्याख्या

रैंडम फॉरेस्ट एक मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म है जो कई “डिसीजन ट्री” बनाकर उनके परिणामों को जोड़ता है और एक अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचता है। इसका मूल सिद्धांत यह है कि एक अकेला निर्णय वृक्ष कभी-कभी गलत या बायस्ड हो सकता है, परंतु सैकड़ों पेड़ों के संयुक्त परिणाम अधिक वस्तुनिष्ठ और संतुलित होते हैं।

इस तकनीक का विचार यह है कि डेटा को कई हिस्सों में बांटा जाए, फिर हर हिस्से पर अलग-अलग निर्णय-प्रणालियाँ चलाई जाएँ। इन सभी के औसत या बहुमत के आधार पर अंतिम निर्णय तय किया जाता है। इस तरीके से यह मॉडल ओवरफिटिंग को कम करता है, त्रुटियों को नियंत्रित करता है और वास्तविक दुनिया के परिवर्तनीय डेटा में भी स्थिर परिणाम देता है।

मशीन लर्निंग क्षेत्र में इसे एक ऐसा मॉडल माना जाता है जो शुरुआती और विशेषज्ञ—दोनों के लिए उपयोगी है, क्योंकि इसकी संरचना सरल है पर परिणाम अत्यधिक प्रभावी होते हैं।

अवधारणा को समझना 

  1. रैंडम फॉरेस्ट कई निर्णय वृक्षों का एक समूह होता है जो समानांतर रूप से काम करते हैं और सामूहिक रूप से भविष्यवाणी करते हैं।
  2. यह मॉडल “बैगिंग” तकनीक का उपयोग करता है, जिसमें डेटा के अलग-अलग नमूने लेकर कई मॉडल तैयार किए जाते हैं।
  3. हर निर्णय वृक्ष स्वयं एक स्वतंत्र मॉडल की तरह काम करता है, पर अंतिम निर्णय सभी वृक्षों के संयुक्त वोट पर आधारित होता है।
  4. यह एल्गोरिद्म वर्गीकरण और प्रतिगमन दोनों प्रकार की समस्याओं को हल कर सकता है।
  5. यह मॉडल जटिल, बड़े और बहु-आयामी डेटा सेट में भी स्थिर और विश्वसनीय परिणाम देने के लिए जाना जाता है।

प्रमुख तथ्य

  1. रैंडम फॉरेस्ट एक “एन्सेम्बल लर्निंग” तकनीक है, जिसमें कई मॉडल साथ मिलकर परिणाम देते हैं।
  2. यह मॉडल 2001 में लीओ ब्रेमन नामक सांख्यिकीविद द्वारा विकसित किया गया था।
  3. रैंडम फॉरेस्ट में हर निर्णय वृक्ष डेटा के अलग-अलग हिस्सों पर प्रशिक्षित होता है, जिससे विविधता बढ़ती है।
  4. यह तकनीक ओवरफिटिंग की समस्या को नियंत्रित कर सकती है, जो अन्य मॉडल के लिए चुनौती होती है।
  5. यह मॉडल गैर-रेखीय और जटिल पैटर्न वाले डेटा में अत्यधिक प्रभावी माना जाता है।
  6. रैंडम फॉरेस्ट missing values को भी संभाल सकता है, जिससे यह असंतुलित डेटा पर भी अच्छा काम करता है।
  7. यह मॉडल फीचर इंपोर्टेंस स्कोर प्रदान करता है, जिससे पता चलता है कि कौन से कारक परिणाम को अधिक प्रभावित करते हैं।
  8. इसका उपयोग धोखाधड़ी रोकथाम, क्रेडिट स्कोरिंग और मेडिकल डायग्नोसिस में तेजी से बढ़ रहा है।
  9. यह बड़े आकार के डेटा सेट में भी उच्च गति से काम करता है, क्योंकि पेड़ समानांतर रूप से बनते हैं।
  10. कई अनुसंधान इसे “दैनिक उपयोग की समस्याओं के लिए सबसे स्थिर मशीन लर्निंग मॉडल” कहते हैं।

यह क्यों महत्वपूर्ण है 

  1. डेटा आधारित निर्णय लेने की क्षमता बढ़ने से सरकारी और निजी नीतियाँ अधिक सटीक बन सकती हैं।
  2. रैंडम फॉरेस्ट साइबर सुरक्षा में खतरों की पहचान को अधिक प्रभावी बनाता है।
  3. यह मॉडल कृषि पूर्वानुमान में किसानों को फसल उत्पादन, कीट जोखिम और मौसम संकेत देकर मदद करता है।
  4. स्वास्थ्य क्षेत्र में रोग की पहचान, जोखिम पूर्वानुमान और दवा प्रतिक्रिया की भविष्यवाणी में अत्यधिक उपयोगी है।
  5. वित्तीय क्षेत्र में यह धोखाधड़ी कम करने और जोखिम प्रबंधन को मजबूत करता है।
  6. जटिल डेटा होने पर भी सटीक परिणाम मिलते हैं, जो नीति अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण है।
  7. यह मॉडल भविष्य में AI आधारित स्वचालन का एक मुख्य आधार बन सकता है।

सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी प्रभाव

1. सामाजिक प्रभाव

  1. स्वास्थ्य सुधार में बेहतर रोग पहचान से नागरिकों की जीवन गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
  2. अपराध विश्लेषण और सुरक्षा प्रणालियों में सुधार से नागरिकों का विश्वास बढ़ता है।
  3. कृषि पूर्वानुमान से ग्रामीण समाज में जोखिम कम होते हैं।

2. आर्थिक प्रभाव

  1. उद्योगों में उत्पादन का पूर्वानुमान बेहतर होने से निवेश और योजना सटीक होती है।
  2. बैंकिंग क्षेत्र में धोखाधड़ी कम होने से आर्थिक स्थिरता बढ़ती है।
  3. आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन में सुधार से कंपनियों का नुकसान घटता है।
  4. डेटा आधारित निर्णयों से सरकारों को संसाधनों का बेहतर उपयोग करने में मदद मिलती है।

3. तकनीकी प्रभाव

  1. यह AI और मशीन लर्निंग की उन्नत तकनीकों के विकास को तेज करता है।
  2. बड़े डेटा में पैटर्न पहचानने से डिजिटल प्रणालियाँ अधिक बुद्धिमान बनती हैं।
  3. यह मॉडल भविष्य की स्वचालित प्रणालियों और रोबोटिक निर्णय क्षमता का आधार तैयार करता है।

चुनौतियाँ

  1. रैंडम फॉरेस्ट मॉडल का आकार बड़ा होने के कारण कभी-कभी प्रशिक्षण में अधिक समय लगता है।
  2. यह तकनीक परिणामों को मनुष्य के लिए आसानी से समझने योग्य रूप में प्रस्तुत नहीं करती (कम interpretability)।
  3. डेटा की गुणवत्ता खराब हो तो मॉडल की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
  4. रीयल-टाइम विश्लेषण में अत्यंत बड़े मॉडल धीमे हो सकते हैं।
  5. संवेदनशील क्षेत्रों में AI के उपयोग पर गोपनीयता संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  6. बड़े संस्थानों के पास अधिक डेटा होने से तकनीकी असमानता बढ़ने की संभावना है।
  7. विशेषज्ञता की कमी छोटे संगठनों को इस तकनीक के उपयोग से वंचित कर सकती है।

आगे का रास्ता 

  1. डेटा संग्रह और गुणवत्ता सुधार पर निवेश बढ़ाया जाना चाहिए।
  2. AI उपयोग के लिए स्पष्ट और मजबूत गोपनीयता नीतियाँ बनाई जानी चाहिए।
  3. मॉडल की interpretability बढ़ाने के लिए पारदर्शी तकनीकों का विकास आवश्यक है।
  4. छोटे संगठनों और शैक्षणिक संस्थानों को AI प्रशिक्षण और संसाधन प्रदान किए जाने चाहिए।
  5. स्मार्ट गवर्नेंस में रैंडम फॉरेस्ट जैसे मॉडल का उपयोग बढ़ाना चाहिए।
  6. डेटा सुरक्षा और AI नैतिकता पर मजबूत दिशा-निर्देश बनाए जाने चाहिए।
  7. क्लाउड आधारित AI प्लेटफ़ॉर्म आम लोगों के लिए अधिक सुलभ किए जाने चाहिए।

निष्कर्ष 

रैंडम फॉरेस्ट आधुनिक डेटा विश्लेषण की दुनिया में एक महत्वपूर्ण तकनीक बन चुका है। यह मॉडल कई निर्णय वृक्षों का सामूहिक उपयोग करके अत्यंत सटीक, स्थिर और तेज़ परिणाम प्रदान करता है। बड़े और जटिल डेटा सेट के कारण आज सरकारी संस्थानों, निजी कंपनियों, शोध संगठनों और शैक्षणिक संस्थानों को ऐसे उपकरणों की आवश्यकता है जो कम त्रुटि के साथ विश्वसनीय निष्कर्ष प्रदान कर सकें। इस एल्गोरिद्म ने जोखिम विश्लेषण, स्वास्थ्य सेवा, कृषि, वित्त, मौसम पूर्वानुमान और सुरक्षा प्रणालियों में उल्लेखनीय योगदान दिया है।

हालाँकि, इसके साथ कुछ चुनौतियाँ भी हैं—जैसे मॉडल का आकार बड़ा होना, डेटा गोपनीयता मुद्दे, विशेषज्ञता की कमी और पारदर्शिता का अभाव—परंतु सही नीतियों और तकनीकी नवाचारों के माध्यम से इन बाधाओं को दूर किया जा सकता है।

समग्र रूप से देखा जाए तो रैंडम फॉरेस्ट एक ऐसी तकनीक है जो आने वाले वर्षों में डेटा आधारित निर्णय-प्रणालियों, AI विकास और स्मार्ट गवर्नेंस को नई दिशा देने की क्षमता रखती है। इसकी समझ और उपयोग न केवल तकनीकी क्षेत्र, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास को भी प्रभावित करते हैं।

सारांश

भारत में लगभग 30% महिलाएँ अंतरंग साथी हिंसा का सामना करती हैं: WHO

भारत में महिलाओं के खिलाफ घरेलू और अंतरंग साथी हिंसा एक गंभीर सामाजिक समस्या है। WHO की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 30 प्रतिशत भारतीय महिलाएँ अपने जीवनकाल में शारीरिक, मानसिक या यौन हिंसा का सामना करती हैं। यह आंकड़ा न केवल सुरक्षा और न्याय व्यवस्था की कमी दर्शाता है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे में गहरे बैठे लैंगिक असमानता, पितृसत्तात्मक सोच और कमजोर संवैधानिक क्रियान्वयन की ओर संकेत करता है। अंतरंग साथी हिंसा के मामलों में अधिकतर घटनाएँ परिवार और घर की चारदीवारी में होती हैं, जहाँ पीड़ित महिलाएँ आर्थिक निर्भरता, सामाजिक दबाव, परिवार की प्रतिष्ठा और भय के कारण शिकायत दर्ज नहीं करा पातीं।

इस समस्या का प्रभाव केवल शारीरिक चोटों तक सीमित नहीं है; मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक स्थिरता, बच्चों के विकास, और पूरे सामाजिक ताने-बाने पर इसका दीर्घकालिक असर पड़ता है। इसके समाधान के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत करना, पुलिस की संवेदनशीलता बढ़ाना, महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाना और समाज में लैंगिक समानता की सोच को बढ़ावा देना आवश्यक है। महिलाओं के अधिकारों, सुरक्षा और गरिमा को सुनिश्चित किए बिना किसी भी देश का सामाजिक विकास पूर्ण नहीं माना जा सकता।

पर्यावरणीय जिम्मेदारी के प्रतीक पर पुनर्विचार

पर्यावरण संरक्षण को लेकर दुनिया भर में कई प्रतीक, नीतियाँ और अभियान विकसित हुए हैं, लेकिन यह भी सच है कि कई बार प्रतीक वास्तविक कार्यवाही की जगह केवल नैरेटिव निर्माण का माध्यम बन जाते हैं। हाल के समय में पर्यावरणीय प्रतीकों पर पुनर्विचार इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि कई बार ये प्रतीक जमीनी प्रभाव पैदा नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध का प्रतीकात्मक उपयोग तो बढ़ा, परंतु वास्तविक प्लास्टिक प्रदूषण घटाने की गति उतनी तेज नहीं दिखी।

पर्यावरणीय जिम्मेदारी का असली अर्थ तभी है जब नीतियों का व्यवहारिक रूप से पालन हो, उद्योगों की जवाबदेही तय हो, और समाज के हर वर्ग को पर्यावरण संरक्षण की भूमिका में जोड़ा जाए। केवल पेड़ लगाने, अभियानों और प्रतीकों तक पर्यावरणवाद को सीमित कर देना पर्याप्त नहीं है; इसके बजाय टिकाऊ उत्पादन, ऊर्जा दक्षता, जल संरक्षण और उपभोग के वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना होगा। प्रतीकों के बजाय वास्तविक, दीर्घकालिक और तकनीक-आधारित समाधान ही पर्यावरण संकट का सामना करने में सक्षम होंगे।

प्रदूषित भूजल की छिपी हुई लागत

भारत के कई राज्यों में भूजल प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है, और इसकी वास्तविक लागत अक्सर दिखाई नहीं देती। औद्योगिक कचरे, कृषि रसायनों, सीवेज और शहरी अपशिष्ट के कारण लाखों लोगों का पेयजल विषाक्त हो चुका है। यह प्रदूषण धीरे-धीरे स्वास्थ्य, कृषि, अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना पर भारी असर डालता है।

प्रदूषित भूजल के कारण पेट संबंधी बीमारियाँ, त्वचा रोग, कैंसर, फ्लोराइड विषाक्तता, आर्सेनिक संदूषण और बच्चों में विकास संबंधी परेशानियाँ बढ़ रही हैं। स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ता है, जिससे गरीब परिवार आर्थिक संकट में फँस जाते हैं। कृषि उत्पादन भी प्रभावित होता है क्योंकि प्रदूषित पानी से मिट्टी की गुणवत्ता गिरती है और फसलें कमज़ोर होती हैं।

सबसे बड़ी छिपी लागत यह है कि भूजल प्रदूषण पीढ़ियों तक असर छोड़ता है। इसे शुद्ध करना महंगा और समय लेने वाला होता है। समाधान के लिए उद्योगों पर कड़े नियम, वैज्ञानिक अपशिष्ट प्रबंधन, भूजल पुनर्भरण, और ग्रामीण जलप्रबंधन योजनाओं को मजबूत करना जरूरी है। जल सुरक्षा के बिना सतत विकास संभव नहीं।

एकदलीय प्रभुत्व में संघवाद का भविष्य

भारत संवैधानिक रूप से एक संघीय लोकतंत्र है, जहाँ केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन लोकतांत्रिक ढांचे की नींव है। परंतु हाल के वर्षों में केंद्र में एकदलीय या अत्यधिक मजबूत बहुमत की सरकार होने पर यह सवाल उठने लगा है कि क्या संघवाद कमजोर हो रहा है। नीति निर्माण, वित्तीय संसाधनों का वितरण, राज्यपालों की भूमिका, और केंद्रीय एजेंसियों के बढ़ते हस्तक्षेप जैसे मुद्दों ने इस बहस को और गहरा किया है।

राज्यों का आरोप है कि कई निर्णय ऐसे लिए जाते हैं जिनमें उनकी भागीदारी सीमित होती है, जिससे सहभागितापूर्ण संघवाद प्रभावित होता है। दूसरी ओर, केंद्र का तर्क है कि मजबूत नेतृत्व से नीति निष्पादन तेज होता है। हालांकि, यदि संतुलन बिगड़ता है, तो क्षेत्रीय असंतोष, राजनीतिक तनाव और प्रशासनिक विवाद बढ़ने की संभावना रहती है।

भारतीय संघवाद तभी मजबूत रह सकता है जब केंद्र–राज्य संबंध सहयोग, परामर्श और विश्वास पर आधारित हों। राज्यों की स्वायत्तता और अधिकारों का सम्मान लोकतांत्रिक बहुलता का आधार है। एकदलीय प्रभुत्व के दौर में भी यह संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।

रैंडम फॉरेस्ट क्या है?

रैंडम फॉरेस्ट एक उन्नत मशीन लर्निंग तकनीक है जो कई निर्णय-वृक्षों को मिलाकर किसी समस्या का समाधान देती है। इसे विशेष रूप से वर्गीकरण और पूर्वानुमान के लिए उपयोग किया जाता है। जैसे-जैसे डेटा का आकार और जटिलता बढ़ रही है, रैंडम फॉरेस्ट विश्लेषण, जोखिम मूल्यांकन और पैटर्न पहचान के सबसे विश्वसनीय तरीकों में से एक बन चुका है।

इस तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ओवरफिटिंग को कम करता है और जटिल डेटा में भी अच्छे परिणाम देता है। इसका उपयोग बैंकिंग, स्वास्थ्य सेवा, कृषि पूर्वानुमान, मौसम विश्लेषण, साइबर सुरक्षा और धोखाधड़ी रोकथाम में तेजी से बढ़ा है।

रैंडम फॉरेस्ट कई निर्णय-वृक्षों के सामूहिक निष्कर्ष पर आधारित होने के कारण अत्यंत स्थिर और विश्वसनीय माना जाता है। यह फीचर इंपोर्टेंस भी बताता है, जिससे पता चलता है कि कौन से कारक परिणाम को अधिक प्रभावित कर रहे हैं। तकनीकी सीमाएँ—जैसे मॉडल का बड़ा आकार और कम व्याख्यात्मकता—हैं, लेकिन इसके बावजूद यह आधुनिक डेटा विज्ञान की मुख्य आधारभूत तकनीकों में से एक है।

प्रैक्टिस MCQs

भारत में लगभग 30% महिलाएँ जीवनकाल में अंतरंग साथी हिंसा का सामना करती हैं (WHO रिपोर्ट)

Q1. WHO की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 30% महिलाएँ जीवनकाल में अंतरंग साथी हिंसा का सामना करती हैं। इस आँकड़े से नीति-निर्माताओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश क्या निकलता है?

A) खेल और संस्कृति मंत्रालय के बजट को बढ़ाना
B) घरेलू हिंसा को सामाजिक–स्वास्थ्य संकट के रूप में पहचानकर रोकथाम, संरक्षण और सहायता तंत्र को मजबूत करना
C) केवल शहरी परिवहन सुधारना
D) ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देना

उत्तर: B
व्याख्या: रिपोर्ट बताती है कि घरेलू हिंसा सिर्फ दंडात्मक कानून का विषय नहीं, बल्कि एक गहरा सामाजिक एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है जिसके लिए व्यापक राष्ट्रीय रणनीति आवश्यक है।

Q2. अंतरंग साथी हिंसा का दीर्घकालिक प्रभाव भारतीय समाज पर किस रूप में दिखाई देता है?

A) खेल प्रदर्शन में गिरावट
B) महिलाओं की आर्थिक निर्भरता बढ़ना, मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होना और अगली पीढ़ी में हिंसा का चक्र जारी रहना
C) स्कूल शिक्षा प्रणाली में सुधार
D) पर्यावरण प्रदूषण में कमी

उत्तर: B
व्याख्या: घरेलू हिंसा महिलाओं की आर्थिक भागीदारी, सामाजिक सुरक्षा, मानसिक स्थिरता और बच्चों के व्यवहारिक विकास पर गंभीर दीर्घकालिक प्रभाव डालती है।

‘पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी’ के प्रतीकों पर पुनर्विचार

Q3. पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी दर्शाने वाले प्रतीकों (जैसे पौधारोपण अभियान, ग्रीन लेबल, प्लास्टिक बैन) पर पुनर्विचार करने का प्रमुख कारण क्या है?

A) जनसांख्यिकीय सर्वेक्षण बढ़ाना
B) प्रतीकात्मक कार्यों के बजाय वास्तविक, वैज्ञानिक और मापनीय पर्यावरण सुधार सुनिश्चित करना
C) केवल कृषि निर्यात बढ़ाना
D) खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करना

उत्तर: B
व्याख्या: कई बार पर्यावरण-संबंधी प्रतीक केवल दिखावटी रह जाते हैं; वास्तविक सुधार के लिए सतत शोध, आँकड़े और प्रभावी नीतियों की आवश्यकता होती है।

Q4. पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी के प्रतीकों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण क्या है?

A) ये अत्यधिक वैज्ञानिक होते हैं
B) इनका वास्तविक प्रभाव अक्सर बहुत कम होता है, जबकि कई संस्थाएँ इन्हें केवल अपनी छवि सुधार के लिए उपयोग करती हैं
C) इनसे विदेशी पर्यटन बढ़ता है
D) ये केवल शहरी क्षेत्रों में लागू होते हैं

उत्तर: B
व्याख्या: सतही अभियानों और ग्रीनवॉशिंग के कारण प्रतीकों का वास्तविक पर्यावरणीय योगदान कम हो जाता है।

प्रदूषित भूजल की छिपी हुई लागत

Q5. भारतीय संदर्भ में प्रदूषित भूजल की ‘छिपी हुई लागत’ किस प्रमुख कारण से बढ़ रही है?

A) सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से
B) जलस्तरों में गिरावट, रासायनिक प्रदूषण, स्वास्थ्य खर्च में वृद्धि और कृषि उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव के कारण
C) वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रमों के कारण
D) शहरी परिवहन योजनाओं के कारण

उत्तर: B
व्याख्या: भूजल की गुणवत्ता गिरने से पीने का पानी असुरक्षित होता है, बीमारियाँ बढ़ती हैं और कृषि पर सीधा असर पड़ता है।

Q6. प्रदूषित भूजल का सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सबसे गंभीर परिणाम क्या है?

A) खेल सुविधाओं की कमी
B) बीमारियों में वृद्धि, स्वास्थ्य-व्यय बढ़ना, स्थानीय अर्थव्यवस्था पर दबाव और संसाधनों की असमान उपलब्धता
C) शहरी आवास की कीमत गिरना
D) पर्यटन उद्योग कमजोर होना

उत्तर: B
व्याख्या: प्रदूषण से स्वास्थ्य संकट बढ़ता है, जिससे परिवारों और सरकार दोनों पर आर्थिक बोझ बढ़ता है।

क्या एकदलीय प्रभुत्व में संघवाद कमजोर हो रहा है?

Q7. भारत में एकदलीय राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ने से संघीय ढाँचे को लेकर सबसे बड़ी चिंता क्या उभरती है?

A) खेल प्रतियोगिताओं में कमी
B) केंद्र और राज्यों के बीच अधिकार-संतुलन प्रभावित होना, नीतिगत विविधता घटना और निर्णय-प्रक्रिया का केंद्रीकरण बढ़ना
C) आयात-निर्यात बंद हो जाना
D) ग्रामीण परिवहन बंद होना

उत्तर: B
व्याख्या: एकदलीय प्रभुत्व से शक्ति-संतुलन प्रभावित हो सकता है, जिससे संघीय ढाँचे की बहुस्तरीय निर्णय प्रक्रिया प्रभावित होती है।

Q8. एकदलीय प्रभुत्व के दौर में न्यायपालिका की भूमिका संघवाद की सुरक्षा के लिए क्यों महत्वपूर्ण हो जाती है?

A) खेल नीतियों की निगरानी के लिए
B) क्योंकि न्यायपालिका संविधानिक संतुलन बनाए रखने, राज्यों के अधिकारों की रक्षा करने और केंद्रीय अतिरेक पर नियंत्रण रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है
C) विदेशी निवेश का प्रबंधन करने के लिए
D) पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए

उत्तर: B
व्याख्या: संघीय ढाँचे में किसी भी असंतुलन की स्थिति में न्यायपालिका संवैधानिक मर्यादाएँ तय करती है।

‘रैंडम फॉरेस्ट’ क्या है? 

Q9. ‘रैंडम फॉरेस्ट’ मशीन लर्निंग में एक महत्वपूर्ण मॉडल है। इसका मुख्य लाभ क्या है?

A) यह केवल खेल आँकड़ों के लिए उपयोग होता है
B) यह कई निर्णय वृक्षों के संयोजन से अधिक स्थिर, सटीक और ओवरफिटिंग से बचने वाला मॉडल तैयार करता है
C) यह सिर्फ मनोरंजन उद्योग के लिए बनाया गया था
D) यह केवल मोबाइल ऐप डिज़ाइन के लिए उपयोग होता है

उत्तर: B
व्याख्या: रैंडम फॉरेस्ट कई ट्री पर आधारित होता है, जिससे भविष्यवाणी अधिक विश्वसनीय और संतुलित होती है।

Q10. ‘रैंडम फॉरेस्ट’ का वास्तविक दुनिया के उपयोग में कौन-सा क्षेत्र सबसे अधिक लाभ उठाता है?

A) फिल्म निर्देशन
B) स्वास्थ्य क्षेत्र में रोग-पूर्वानुमान, बैंकिंग में धोखाधड़ी पहचान, पर्यावरण अनुसंधान और कृषि पूर्वानुमान
C) केवल सांस्कृतिक कार्यक्रम
D) खेल प्रतियोगिता आयोजन

उत्तर: B
व्याख्या: यह मॉडल विभिन्न क्षेत्रों में बड़े डेटा से पैटर्न पहचानकर निर्णय की सटीकता बढ़ाता है।

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